Friday, February 8, 2013

जड़ और सापेक्ष


वर्तमान के गलियारों में, अर्थ-भ्रम, वाद-विवाद, मर्त्य-अमर्त्य,
 क्षणिक -चिरंतन..सब कुछ सापेक्ष ही तो है..!
 जड़ता का सिधांत हुक्मरानों के लिए नहीं तो और क्या था?
 न्यूटन का जड़त्व, मध्यकालिक जडत्व नहीं तो और क्या था?

सापेक्षता तो समय की हालिया उपज है जो,
धू-धू कर बर्बाद होते नागासाकी और हिरोशिमा की चीखों के साथ ही चिल्लाती हुई जन्मी थी,
मध्यकालिक पापों के आग में झुलसती आधुनिकता को लोरी सुना के सुलाने के लिए!

शीत युद्ध के पदचापों के दरम्यान ही 'सापेक्ष' छलक के आता है,
क्यों? क्यूंकि हित सापेक्ष होते जा रहे थे,
क्यूंकि अमेरिकी 'कोका-कोला' का बक्सर में आगमन,
और रुसी सैनिकों का अफगानिस्तान में 'तथाकथित निस्वार्थ सैन्य सहयोग',
इन सब कुछ का आगमन भी तो सापेक्षता के रथ पर ही हुआ है.

धर्मं-अधर्म, भाव-भाषा,
इतिहास-भूगोल, भुत-भविष्य,
आशा-निराशा..सब 'सापेक्षता' का चोला ओढ़े सोये पड़े हैं मानो,
हर 'वाद' की सतह 'सापेक्षता' की फुहारों से गीली लगती है,
हम ही गलत है जो अपने फिसलने की तोहमत अपने पैरों पे मढ़ जाते हैं.

हमारे कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व, मूल्य, विकार,...सब मुक्त हैं आज जडत्व की बेड़ियों से..
जड़ता का फ्रेम तो कब का टूट के बिखर गया है...
'निरोध' के धक्कों ने, टूटते मिथकों की झंकार ने,
क्रांतियों वाले बुलडोजर की रफ़्तार ने, भटकती हुई मानवता की कुछ खोजती हुई आत्मा ने,
चूर कर रख दिया है 'जडत्व' के इस फ्रेम को!!

न्यूटन और आइन्स्टीन भी तो शासकों की ही देन हैं,
ठीक वैसे ही जैसे की उनका जडत्व और सापेक्षता,
रही बात शोषितों की.. उनकी तो सापेक्षता भी 'सापेक्ष' होती है,
ठीक वैसे ही जितना जड़ होता है उनका जडत्व!!

गोधरा की जलती लाशों में और सोमालिया की जिन्दा लाशों में,
इराक के दरकते खंडहरों में, अफगानी पीठों में पड़ी अमेरिकी मोर्टार की पिटाई में...
इन सब में 'सापेक्ष' कहाँ है,...
बिहारी मुसहरों की व्यथा में, कस्बाई सड़कों में अब तक चलते सामंती पदचिन्हों में,
लक्ष्मनपुर-बाथे और सेनारी में पड़ी मुआवजे का इंतज़ार करती लाशों में,
सापेक्ष कहाँ है इनमें....
या फिर इनका जड़ और सापेक्ष किसी पेड़ के नीचे खड़ा चिलम फूंक रहा है????

No comments:

Post a Comment