उबलती गर्मियों में, कंकपाती सर्दियों में,
बरसते बादलों से भरे गंदले-बजबजाते नालों के बीच,
मैं गरीब हूँ।
जानता हूँ, 'गरीबी' एक निहायती फ़िज़ूल सा लफ्ज़ है।
तुमने ही कहा था- 'गरीब हूँ मैं, गरीब ही रहूँगा,तुम्हारा हाथ न थामा, तो यूँ ही रहूँगा!'
मैं यूँ ही रहा, साल-दर-साल- फ़िज़ूल,हाशिये को थामे, दुबका हुआ।
मुझे लगा था की तुम भूल जाओगे, मुझको, मेरी गरीबी को।
पर उस दिन जब गाँव में चीनी की मिल लगी थी, तुम अपने मुहल्लों से निकल कर हाशिये तक आये थे।
बंधी हुई मुट्ठियों को लहराते हुए, तुमने दहाडा था -
'जागो, जागो - जाग सर्वहारा, जाग!.........'
तुमने हमारा नया नाम रखा था- 'सर्वहारा'!
गरीबी का नशा फिर भी नहीं टूटा, हाशियों की बुनियाद वैसी की वैसी रही - मजबूत।
साल गलते रहे, सर्दियाँ गर्मियों में बदलती गयीं - तुम अब और भी समझदार हो गए थे।
पता नहीं अब क्या क्या बोलने लग गए थे- की धर्मं अब निरपेक्ष हो गया है, प्रजातंत्र आ गया है।
तुम्हारी खेतों पर अब मोटरगाड़ियों का कारखाना बन रहा था- तुम्हारे बेटे जिनपे अपनी लुगाई घुमाते थे!
मुझे धर्मं का पता नहीं, पर मैं गरीब अब भी था, बिलकुल तुम्हारे धर्म की तरह - निरपेक्ष!
फिर एक दिन तुमने हमारे कुँए के पास चौपाल बुलाई।
तुमने एक काले ब्लैक बोर्ड पर उजली सी रेखा खींच दी - गरीबी रेखा!
हाशिये के सूरज से परेशान थे तुम, उसकी धुप बहुत तीखी लगती थी तुमको।
फिर भी, पसीना झाड़ते हुए तुमने कहा था- ' देख लो इस रेखा को, तुम इसके नीचे रहते हो, बहुत नीचे।
ये रेखा मुझको ढाई रूपये किलो वाला चावल देगी, सस्ता तेल देगी - तुमने कहा था!
जय हो तुम्हारी, जय हो गरीबी रेखा की!
उम्दा, बेहद उम्दा नुस्खा है ये!
शुक्रिया तुम्हारा, इस रेखा के लिए, मेरी गरीबी के लिए
कितनी सीधी है ये, कितनी चमकदार, कितनी लम्बी- ये गरीबी रेखा!
ओ मेरे शुभचिंतक- शत शत नमन तुम्हारा- तुमने हमें वरदान दिया है!
जय हो गरीबी रेखा!
बरसते बादलों से भरे गंदले-बजबजाते नालों के बीच,
मैं गरीब हूँ।
जानता हूँ, 'गरीबी' एक निहायती फ़िज़ूल सा लफ्ज़ है।
तुमने ही कहा था- 'गरीब हूँ मैं, गरीब ही रहूँगा,तुम्हारा हाथ न थामा, तो यूँ ही रहूँगा!'
मैं यूँ ही रहा, साल-दर-साल- फ़िज़ूल,हाशिये को थामे, दुबका हुआ।
मुझे लगा था की तुम भूल जाओगे, मुझको, मेरी गरीबी को।
पर उस दिन जब गाँव में चीनी की मिल लगी थी, तुम अपने मुहल्लों से निकल कर हाशिये तक आये थे।
बंधी हुई मुट्ठियों को लहराते हुए, तुमने दहाडा था -
'जागो, जागो - जाग सर्वहारा, जाग!.........'
तुमने हमारा नया नाम रखा था- 'सर्वहारा'!
गरीबी का नशा फिर भी नहीं टूटा, हाशियों की बुनियाद वैसी की वैसी रही - मजबूत।
साल गलते रहे, सर्दियाँ गर्मियों में बदलती गयीं - तुम अब और भी समझदार हो गए थे।
पता नहीं अब क्या क्या बोलने लग गए थे- की धर्मं अब निरपेक्ष हो गया है, प्रजातंत्र आ गया है।
तुम्हारी खेतों पर अब मोटरगाड़ियों का कारखाना बन रहा था- तुम्हारे बेटे जिनपे अपनी लुगाई घुमाते थे!
मुझे धर्मं का पता नहीं, पर मैं गरीब अब भी था, बिलकुल तुम्हारे धर्म की तरह - निरपेक्ष!
फिर एक दिन तुमने हमारे कुँए के पास चौपाल बुलाई।
तुमने एक काले ब्लैक बोर्ड पर उजली सी रेखा खींच दी - गरीबी रेखा!
हाशिये के सूरज से परेशान थे तुम, उसकी धुप बहुत तीखी लगती थी तुमको।
फिर भी, पसीना झाड़ते हुए तुमने कहा था- ' देख लो इस रेखा को, तुम इसके नीचे रहते हो, बहुत नीचे।
ये रेखा मुझको ढाई रूपये किलो वाला चावल देगी, सस्ता तेल देगी - तुमने कहा था!
जय हो तुम्हारी, जय हो गरीबी रेखा की!
उम्दा, बेहद उम्दा नुस्खा है ये!
शुक्रिया तुम्हारा, इस रेखा के लिए, मेरी गरीबी के लिए
कितनी सीधी है ये, कितनी चमकदार, कितनी लम्बी- ये गरीबी रेखा!
ओ मेरे शुभचिंतक- शत शत नमन तुम्हारा- तुमने हमें वरदान दिया है!
जय हो गरीबी रेखा!

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