मैं रिक्शे वाले को 100 का नोट पकडाता हूँ,मुझे उसे 25 देने हैं। वो अपनी जेब खोद-खाद के एक पचास और एक दस का मुड़ा -तुड़ा नोट निकालता है। 'इतने ही हैं मेरे पास', कह के पास में खड़े धुप सकते ऑटो वाले से मांगने जाता है। वो किसी भद्दी सी गाली को और भी भद्दे लहजे में बोल, उसके भद्देपन का लुत्फ़ उठाने में लगे हैं। सामने से गवर्नमेंट स्कूल में पढने वाली लम्बी चोटियों में लाल रिबन लगाये दो लड़कियां निकल रही है। शायद उनमे से एक ने इन ऑटो वालों को सुना लिया है, वे फिर भी बेपरवाह सी दिखने की कोशिश करती आगे खिसक रही हैं। रिक्शे वाले को अपने खुल्ले की पड़ी है। मेरी आँखें लाल होती जा रही हैं,होठ खुश्क से लग रहे हैं,मुझे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा है। मुझे ऐसा क्यूँ लग रहा है कि मेरी कॉलोनी की गेट पे खड़ा वो दिल्ली पुलिस का कांस्टेबल मुझे घूर रहा है, मैं डरना शुरू करता हूँ।
मुझे जाड़े की अलसाई सुबह की धुप चुभ रही है, मेरे पैर कांप रहे हैं। मैं चुप चाप से डरता हूँ, चुप चाप से ठिठुरता हूँ। मुझे ये नहीं करना चाहिए था, सोचता हूँ। रिक्शा वाला ऑटो वाले से खुल्ले के लिए पूछता है - दोनों मना कर देते हैं। वो आगे बढ़ता है, मैं पीछे आता हूँ। मैं चलते हुए उन दोनों ऑटो वालों को बात करते सुनता हूँ - '40 मेरे पास थे, 10 तेरे पास, हो जाता!' छोटा वाला एक कुटिल मुस्कान ओढ़े, बड़े वाले से कह रहा है। 'अबे दिन भर में इनके जैसे दस आ जाते हैं मांगने, कंगले बिहारी सब!' ऑटो-रिक्शे की दुनिया में भी दिल्ली और पटना के बीच दूरी है- आज जाना। ऑटो वाले की आवाज़ में गुरूर क्यूँ था?
रिक्शे और ऑटो के बीच भी एक महीन सा वर्ग विभेद मिलेगा, होश में ऐसा कभी नहीं सोचा था। मार्क्सिस्ट जिस वर्ग विशेष पर 'सर्वहारा' का बोर्ड डालते आये हैं- वो इतना पाक साफ भी नहीं!
मैं आगे फिसलता हूँ, रिक्शा वाला अब थक चूका है। मुझसे कुछ खरीद लेने के लिए कहता है - मैं डरता हूँ। मेरी आँखें बदस्तूर लाल हो रही है, मुझे लगता है मैं बेवजह मुस्कुरा रहा हूँ। मैं कोशिश करता हूँ। मैं डेरी मिल्क सिल्क मांगता हूँ - वो खुल्ले और पैकेट पकडाते हैं। 'उसको अच्छा लगता है',मैं सोचता हूँ। मैं उन्हें 500 का नोट देता हूँ - वे मुझे 4 सौ के और एक पचास का नोट थमाते हैं। रिक्शा वाला मुझे अबकी गौर से देखता है- मैं नार्मल सा दिखने की कोशिश में और एब्नार्मल लगने लगा हूँ। वो अनुभवी है - ताड़ लिया है उसने।
'भैया, फिर तो बतवा उही हो गया।' वो मुझे बड़े गौर से देखता बोल रहा है।
मैं उसके रिक्शा को पकडे खड़ा ठिठुर रहा हूँ, वो मुझे सहारा देने की सोच रहा है।
मुझे अचानक उससे, सामने खड़े कांस्टेबल से, पास वाले फल वाले, सड़क पे चलते हर शख्स से डर लगने लगा हूँ।
मैं उसे पचास वाला नोट थमा कर निकल लेता हूँ - वो मुस्कुराते हुए हैरान सा पैडल मरने लगता है।
मैं दिमाग पे जोर डालते आगे बढ़ता हूँ, मुझे तंज़ है की मैंने 25 रुपये गवां दिए हैं। पर मैं लाचार हूँ।
मैं अपने गुफा जैसे फ्लैट का ताला खोलता। हूँ। ऊपर रहने वाली पंजाबी आंटी धुप में खड़ी हो कर बगल वाली संग स्वेटर बुन रही है।
'आज जल्दी आ गए?' वो मुझे देख के पूछती हैं।
चाभी न जाने क्यूँ ताले के भीतर कही फंस गयी है। अजीब है।
दोपहर के 12 बजे मैं अकेला अपने कमरे में काँप रहा हूँ। मेरी नसें चटक रही है- ऐसा मुझे लगता है।
मैं हदस गया हूँ भीतर तक - कही मर ना जाऊं।
मैं अपना फ़ोन निकल कर उसको कॉल करता हूँ। मुझे पता है की डेल्ही में अभी उसके अलावा कोई और नहीं आएगा मेरे लिए।
वो अभी अपने क्लास में है- मेरे कान में उसके सहेलियों की चिल्ल-पों सुनाई पड़ रही है।
जल्दी आ जाओ - अभी, प्लीज।' मैं बच्चे की तरह चिल्लाता हूँ। मुझे याद आ रहा है की कल तक मैं उसके सामने कितना 'माचो' बनता था।
वो बदहवास भागती हुई आती है - मैं ठण्ड से काँपता उसे कातर निगाहों से देख रहा हूँ।
वो दौड़ के किचन में जाती है - तेल गरम कर उसमे लहसून डाल कर, मेरे लिए निम्बू-पानी बना के लाती है।
वो मेरे तलवों पे तेल मलती हुई मुझे डांट भी रही है - 'करो यही सब तुम, क्या जरुरी है?'
मेरा पेट खाली है- मुझे उलटी आ रही है।
वो भाग कर बाथरूम से बाल्टी लाती है - मैं उलटी करता उसपे फ़िदा हो रहा हूँ। उसकी लटें बिखर चुकी हैं, वो नर्वस है, पर डरी हुई नहीं है।
मैं बिस्तर पर निढ़ाल लेट जाता हूँ - वो अब भी मेरे तलवे मल रही है। बिलकुल माँ की तरह।
मैं उसे देख रहा हूँ तो कुछ याद आ रहा है - कल शाम ही मैंने उससे बोल था की दिल्ली यूनिवर्सिटी की लडकियां सिर्फ पाउडर और लिपस्टिक पोत कर इंग्लिश में गिट पिट ही कर सकती हैं!
मैं चुप चाप पड़ा हूँ - बेहोशी भी मुझसे कह रही है की मैं गलत था।
मैं उसे उसका सिल्क थमाता हूँ!
अरे, फिर से ये ऑरेंज फ्लेवर ले आये तुम, कितनी बार कहा है मुझे पसंद नहीं।' वो बच्चों जैसा गुस्सा हो गयी है!
मैं इस दिल्ली यूनिवर्सिटी की लड़की को देख रहा हूँ, मुझे अभिजीत मुख़र्जी पे हंसी आ रही है। मुझे संस्कार के ठेकेदारों पे भी हंसी आ रही है। मैं सच में हसने लगता हूँ।
शुरू हो गया तुम्हारा नौटंकी सब - सो जाओ बाबु, ठीक लगेगा। डेल्ही यूनिवर्सिटी की वो लड़की मुझसे कह रही है।
मुझे जाड़े की अलसाई सुबह की धुप चुभ रही है, मेरे पैर कांप रहे हैं। मैं चुप चाप से डरता हूँ, चुप चाप से ठिठुरता हूँ। मुझे ये नहीं करना चाहिए था, सोचता हूँ। रिक्शा वाला ऑटो वाले से खुल्ले के लिए पूछता है - दोनों मना कर देते हैं। वो आगे बढ़ता है, मैं पीछे आता हूँ। मैं चलते हुए उन दोनों ऑटो वालों को बात करते सुनता हूँ - '40 मेरे पास थे, 10 तेरे पास, हो जाता!' छोटा वाला एक कुटिल मुस्कान ओढ़े, बड़े वाले से कह रहा है। 'अबे दिन भर में इनके जैसे दस आ जाते हैं मांगने, कंगले बिहारी सब!' ऑटो-रिक्शे की दुनिया में भी दिल्ली और पटना के बीच दूरी है- आज जाना। ऑटो वाले की आवाज़ में गुरूर क्यूँ था?
रिक्शे और ऑटो के बीच भी एक महीन सा वर्ग विभेद मिलेगा, होश में ऐसा कभी नहीं सोचा था। मार्क्सिस्ट जिस वर्ग विशेष पर 'सर्वहारा' का बोर्ड डालते आये हैं- वो इतना पाक साफ भी नहीं!
मैं आगे फिसलता हूँ, रिक्शा वाला अब थक चूका है। मुझसे कुछ खरीद लेने के लिए कहता है - मैं डरता हूँ। मेरी आँखें बदस्तूर लाल हो रही है, मुझे लगता है मैं बेवजह मुस्कुरा रहा हूँ। मैं कोशिश करता हूँ। मैं डेरी मिल्क सिल्क मांगता हूँ - वो खुल्ले और पैकेट पकडाते हैं। 'उसको अच्छा लगता है',मैं सोचता हूँ। मैं उन्हें 500 का नोट देता हूँ - वे मुझे 4 सौ के और एक पचास का नोट थमाते हैं। रिक्शा वाला मुझे अबकी गौर से देखता है- मैं नार्मल सा दिखने की कोशिश में और एब्नार्मल लगने लगा हूँ। वो अनुभवी है - ताड़ लिया है उसने।
'भैया, फिर तो बतवा उही हो गया।' वो मुझे बड़े गौर से देखता बोल रहा है।
मैं उसके रिक्शा को पकडे खड़ा ठिठुर रहा हूँ, वो मुझे सहारा देने की सोच रहा है।
मुझे अचानक उससे, सामने खड़े कांस्टेबल से, पास वाले फल वाले, सड़क पे चलते हर शख्स से डर लगने लगा हूँ।
मैं उसे पचास वाला नोट थमा कर निकल लेता हूँ - वो मुस्कुराते हुए हैरान सा पैडल मरने लगता है।
मैं दिमाग पे जोर डालते आगे बढ़ता हूँ, मुझे तंज़ है की मैंने 25 रुपये गवां दिए हैं। पर मैं लाचार हूँ।
मैं अपने गुफा जैसे फ्लैट का ताला खोलता। हूँ। ऊपर रहने वाली पंजाबी आंटी धुप में खड़ी हो कर बगल वाली संग स्वेटर बुन रही है।
'आज जल्दी आ गए?' वो मुझे देख के पूछती हैं।
चाभी न जाने क्यूँ ताले के भीतर कही फंस गयी है। अजीब है।
दोपहर के 12 बजे मैं अकेला अपने कमरे में काँप रहा हूँ। मेरी नसें चटक रही है- ऐसा मुझे लगता है।
मैं हदस गया हूँ भीतर तक - कही मर ना जाऊं।
मैं अपना फ़ोन निकल कर उसको कॉल करता हूँ। मुझे पता है की डेल्ही में अभी उसके अलावा कोई और नहीं आएगा मेरे लिए।
वो अभी अपने क्लास में है- मेरे कान में उसके सहेलियों की चिल्ल-पों सुनाई पड़ रही है।
जल्दी आ जाओ - अभी, प्लीज।' मैं बच्चे की तरह चिल्लाता हूँ। मुझे याद आ रहा है की कल तक मैं उसके सामने कितना 'माचो' बनता था।
वो बदहवास भागती हुई आती है - मैं ठण्ड से काँपता उसे कातर निगाहों से देख रहा हूँ।
वो दौड़ के किचन में जाती है - तेल गरम कर उसमे लहसून डाल कर, मेरे लिए निम्बू-पानी बना के लाती है।
वो मेरे तलवों पे तेल मलती हुई मुझे डांट भी रही है - 'करो यही सब तुम, क्या जरुरी है?'
मेरा पेट खाली है- मुझे उलटी आ रही है।
वो भाग कर बाथरूम से बाल्टी लाती है - मैं उलटी करता उसपे फ़िदा हो रहा हूँ। उसकी लटें बिखर चुकी हैं, वो नर्वस है, पर डरी हुई नहीं है।
मैं बिस्तर पर निढ़ाल लेट जाता हूँ - वो अब भी मेरे तलवे मल रही है। बिलकुल माँ की तरह।
मैं उसे देख रहा हूँ तो कुछ याद आ रहा है - कल शाम ही मैंने उससे बोल था की दिल्ली यूनिवर्सिटी की लडकियां सिर्फ पाउडर और लिपस्टिक पोत कर इंग्लिश में गिट पिट ही कर सकती हैं!
मैं चुप चाप पड़ा हूँ - बेहोशी भी मुझसे कह रही है की मैं गलत था।
मैं उसे उसका सिल्क थमाता हूँ!
अरे, फिर से ये ऑरेंज फ्लेवर ले आये तुम, कितनी बार कहा है मुझे पसंद नहीं।' वो बच्चों जैसा गुस्सा हो गयी है!
मैं इस दिल्ली यूनिवर्सिटी की लड़की को देख रहा हूँ, मुझे अभिजीत मुख़र्जी पे हंसी आ रही है। मुझे संस्कार के ठेकेदारों पे भी हंसी आ रही है। मैं सच में हसने लगता हूँ।
शुरू हो गया तुम्हारा नौटंकी सब - सो जाओ बाबु, ठीक लगेगा। डेल्ही यूनिवर्सिटी की वो लड़की मुझसे कह रही है।

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