Friday, February 15, 2013

इतिहास का स्वास्थ्य लाभ!


  
  उस दिन इतिहास को 'वाद' वाले डिटोल से धो के परोसा गया था..
 ताकि सभ्यता के दमन पर कस्बाई गन्दगी के छीटें न मिले !
 दंगे हुए, लोग मरे, बेटियां लुटी, घर खाक हुए, लोग दफ़न हुए....हो जाने दो.
 बस 'सभ्यता' चमकती रहे...हमारा इतिहास चमकता रहे...!!

 सैंतालिस आया.........ट्रेन भर के लाल खून में सनी लाशें पहुंची...
 'हम' 'भारत' के 'लोग' फिर भी कहाँ डिगे...राष्ट्रवाद वाले डिटोल से धो डाला सारे घावों को...
 इतिहास पर सुनहले भारत के सपने वाली मरहम पट्टी कर दी...वो रोया..तो 'सत्ता' ने उसे पुचकारा और कहा बड़े बड़े मुल्कों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं...सेनोरिता!
 
 फिर मुरादाबाद में इक मुस्लिम लड़की और हिन्दू लड़के को प्यार हो गया, दोनों भाग गए...
 पीछे छोड़ गए बवाल...दंगे हुए..लोग मरे...घर खाक हुए....लोग दफ़न हुए....
 इतिहास फिर रोया...सत्ताधारी आये..लाशें देखीं....
 वे आम लाशें थी..गरीबी की सड़ांध और बेबसी की मिचली से सनी हुई....
 उनसे हमारे इतिहास को खतरा था...संक्रामक बिमारियों का...
हमने हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले रुई के फाहे से इतिहास की पीठ पर धार्मिक सदभाव वाला डिटोल लगाया...
और फिर भाषणों की लोरी सुना दर्द से बिलबिलाते इतिहास को सुला दिया...!
 नए साल की नयी सुबह पे हमारा इतिहास अब भी गौरवशाली था..!!

सत्ता ने इतिहास को सुला अभी साँस ली ही थी..कि मेरठ कटा...दिल्ली जली..भागलपुर सडा...मुंबई फूंकी...
फिर गोधरा आया...आसाम भी आया...!
हज़ारों लाशें सडती रही...लाखों घर बर्बाद होते रहे....इज्ज़तें बेईज्ज़त होती रहीं...!
सत्ता इनसे परेशां नहीं थी.....इनकी सड़ांध से परेशां थी...जो उसके सभ्यता और इतिहास के नाक में घर कर बैठी थी!!
सभ्यता को मिचली आ रही थी....इतिहास खौफज़दा हो काँप रहा था...
लिहाज़ा सत्ता ने हकीमों को फरमान भेजा...!
हाकिम आये...वे दिल्ली के साउथ और नोर्थ ब्लाक से आये थे... वे बड़े बड़े समाचार चैनलों के दफ्तर से आये थे...उनके पास बड़ी बड़ी डिगरियां थी... बड़े बड़े कैमरे थे...गाड़ियाँ भी थी!!

सत्ता बौखलाई हुई सी संसद के चक्कर कट रही थी.....हकीमों के आते ही उसने इलाज़ पूछा..!
 'अमां रह रह के ये मुआ इतिहास बीमार पड़ जाता है....कोई पक्का नुस्खा इजाद करो यार'...सत्ता बोली!
हकीमों ने इतिहास को किताबों की मेज़ पर लिटाया...वो कांपता था..!
दंगों के दाग को धोने की तरकीब निकली गयी....'अपवाद', 'भूख' और 'गरीबी' जैसी वजहों वाला हैंडीप्लास्ट चिपकाया गया इतिहास के ज़ख्मों पर...!
उसे फिल्में दिखाई गयी....जिसमें सन्नी देओल इक मुसलमान अमीषा को पाने के लिए ग़दर मचा रहा था...
उसे अमन की आशा वाले नगमे सुनाये गए....जिसमे राहत भाई और आशा ताई थीं..!
रमजान की दावतों में 'गो माता'  के दूध में मिली सेवैयाँ परोसी गयी....!
इतिहास को धर्म-निरपेक्षता वाले कम्बल में लपेटा गया......संविधान के तकिये पे सुलाया गया..!
वो अब नहीं कांप रहा था..! 
सभ्यता को गाँधी मार्का इतर से नहाया गया...! 

इतिहास के कमरे में सिन्धु घटी सभ्यता के कंगूरे टाँगे गए....
स्वर्ण काल की दूध-दही की नदियों वाले तस्वीर भी टंगी..
सभ्यता की देहलीज़ पर गाँधी-नेहरु ब्रांड की झालरियाँ लटकाई गयीं...
एक interior decorator आया..उसने 'theme india' सजाया...
पूरे कमरे की 'भारत' नाम के डिसटेम्पर से पुताई की.....
कोने में पड़े गरीब गन्दगी को बुहारा गया....लोकतंत्र नाम के झाड़ू से!
'अनेकता में एकता' टाइप मुहावरों की चिप्पियाँ सटी...
और सभ्यता फिर से चमकने लगी....इतिहास अब स्वास्थ्य-लाभ करने लगा था!!

Saturday, February 9, 2013

एक मोबाइल की छुट्टी!


दिल्ली के पूरब में आसमान पर धुंध और अँधेरा लिपटे सो रहे थे। चाँद,तारे और सूरज अपनी छुट्टी का लुत्फ़ उठा रहे थे। जनवरी का सूरज ऐसे भी डंडीमार होता है, नाकारा! ऐसे में बिजली के उलझते तारों, नारंगी रौशनी उगलते लैंप-पोस्ट जिन पर सधन्यवाद मोहल्ले के माननीय विधायक का नाम चस्पा था, छोले-कुलचे के वीरान से ठेलों, और पिछली शाम के जूठे ठोंगों को अभी-अभी चाट कर लेटे कुत्ते के अलावा, उस गली के चौथे मकान के पहले कमरे में एक मोबाइल, एक लड़की और उसका भाई जगे पड़े थे। मेट्रो के खम्बों ने दिन भर बदस्तूर थरथराने के बाद अभी कुछ ही घंटे पहले सांस ली थी, पास वाले मस्जिद की मीनार से टंगे हुए भोंपू की नींद ख़त्म होने में अब बस कुछ ही पल बाकी थे।

लड़की 25 की थी, पर फिर भी रजाई से उसके पैर रह रह कर बाहर आ जाते थे। उसका एक हाथ मोबाइल को पकडे कान से चिपका हुआ था, लिहाज़ा वो अपने दुसरे हाथ से ही रजाई खींच लेती थी। तकिये के बगल में उसकी किताब पड़ी थी- पिछले तीन घंटे से मुड़ी-तुड़ी सी। बीच-बीच में लड़के को अपनी बहन की फुसफुसाती आवाज़ के अलावा दूर रिंग-रोड पर दौड़ती दिल्ली पुलिस की पी सी आर वैन के भोंपू की आवाज़ सुनाई पड़ती थी। ' काश मेरी दीदी लता मंगेशकर जैसा बोलती और पी सी आर के साईरन की आवाज़ आई पी एल वाले साउंड-ट्रैक जैसी होती,'' ऐसा सोचता वो लड़का फिर से हिब्रू जैसे दिखने वाले गणितीय बकवास को एकटक निहारने लगता। वो बस दो महीने पहले ही अपनी दीदी के पास आया था - गोरखपुर से दिल्ली बहुत अलग लगती थी उसे। किसी सुन्दर पर डरावनी चुड़ैल जैसी दिल्ली!

बहरहाल रजाई से कश्म-ऐ-काश करती वो लड़की रह रह के मोबाइल को चुम्मे दे रही थी- मीलों दूर कलकत्ते के किसी मल्टी -नेशनल प्रतिष्ठान के चौथे तल्ले में अपने दडबे जैसे कार्य-स्थल पर दिन भर की मानसिक प्रताड़ना झेल कर लौटा उसका होने वाला पति अब प्यार नाम का क्लोरोफोर्म ले रहा था! रजाई के भीतर, उस लड़की के कानों से चिपक कर अभियांत्रिकी अब पूरी तरह से मानवीय हो चली थी। उस हथेली भर के मोबाइल फ़ोन में तमाम फंतासियाँ हिलोरे मार रही थीं, सपने उसकी स्क्रीन पर उस लड़की के होठों के चिन्ह की शक्ल में उग रहे थे, सवाल जवाब बन कर पूर्वी दिल्ली के इस धंसे हुए मोहल्ले के कमरे से उत्तरी कलकत्ता के उस और भी ज्यादा धंसे मोहल्ले के कमरे तक आ जा रहे थे। वे पिछले छह महीनो से वाया मोबाइल इश्क फरमा रहे थे। मोबाइल था की बातों की लड़ियों में उलझ कर बदरंग होता जा रहा था, की -पैड को अपने श्वेत से श्याम हो जाने का रंज तो था पर उसके पास खुश होने की वजह भी थी- क्यूंकि लड़की की उँगलियों ने पिछले कई महीनो से सबसे ज्यादा उसे ही छेड़ा था।

इन छह महीनो में कुछ और गतिविधियाँ भी हुई थी। लड़के ने अपनी पिछली माशूका को आखिरी बार सिनेमा घर में करण जौहर का रोमांस दिखाते हुए, इम्तिआज़ अली वाले स्टाइल में ब्रेक अप करते हुए,यह बता दिया था की जिंदगी, दरअसल अनुराग कश्यप की फिल्मों जैसी है, वही फ़िल्में जिन्हें वो आज तक बोरिंग कह कर गाली देती आई है। पिछले महीने ही लड़के ने जिम जाना शुरू किया था। ये ठीक है की सिक्स पैक के पीछे जहाँ दिल धडकता है वहां उसे एक पत्थर रखना पड़ा था क्यूंकि जिम की फीस उसके पतलून के पीछे अच्छा खासा सुराख़ कर रही थी, पर ख़ास दोस्तों की ख़ास सलाह को वो ठुकरा न सका।

इधर हजार मील दूर दिल्ली में भी बीते छह महीनों में लड़की ने तमाम किस्म की गतिविधियों को अंजाम दे डाला था - उसके बाल अब और ज्यादा सीधे हो गए थे, आगे की कुछ लटें खतरनाक किस्म के भूरे रंग में रंग गयी थी, उसने इन बीते महीनो में 6 बार अपना नंबर बदल डाला था और वोडा से लेकर आईडिया तक सभी टेलीफोन कंपनियों को अपनी सेवा का बराबर अवसर दिया था, उसने दिल पर पत्थर रख कर छोले-कुचले के ठेलों से अनचाही दुश्मनी मोल उनको अलविदा कह दिया था और अभी कल ही छुपती-छुपाती अपनी सहेली के साथ जा कर ''सुडोल'' नाम का क्रीम खरीद कर आई थी। इन सब के बीच वो पिछले दिसम्बर की उस ठंडी शाम को दामिनी के लिए इंडिया गेट पर चीख कर भी आई थी- आह, कितना रोई थी ये लड़की जब वो सिंगापुर में मरी थी, उस रात कलकत्ता भी बात नहीं की थी इसने!

गतिविधियाँ अगर यही दम मार लेतीं तो मैं ये कहानी नहीं लिख रहा होता। रात के इस पहर में जब वो अपने बेदम होते मोबाइल के छेद में बेरहमी से चार्जर का पिन धकेल रही थी, तो उसे एहसास था की उसके पिछले दो साल के दिल्ली प्रवास के दौरान की गयी छिटपुट खुदरी गलतियां अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही है। उसके मोबाइल पर किसी धडकते, शराब के नशे में मदहोश और जहरीले दिल की कॉल प्रतीक्षा में था। भजनपुरा के किसी बेहद संकरी गली के पीले मकान के चौथे तल्ले के अँधेरे कमरे से की गयी ये कॉल बेहद जिद्दी थी, ये वोडा से लेकर आईडिया तक हर नंबर पर आती है। पिछली रविवार को लड़की ने कलकत्ते को होल्ड पे रख कर भजनपुरा वाली कॉल को भर दम गलियाया था।

'' क्यों बे स्साले, बार बार फ़ोन कर के क्या उखाड़ लेगा तू, एक बार कहने से नहीं समझ में आता क्या बे?'' साल भर पहले मेट्रो में उससे मिलना अब इस लड़की के लिए दुश्वारी बन गया था। वो हर दुसरे दिल्ली के लड़के की ही तरह था - खड़े बाल, चुस्त पतलून,पालिका से ख़रीदे हुए चमकदार जूते, गोगल्स और वही माचो-भैन्चो टाइप खिलंदरापन - मेट्रो में पहली बार उसको देख कर गोरखपुर की इस लड़की को भजनपुरा वाले लौंडे में अपना सलमान दिखने लगा था। अब ये अलग बात है की उस शाम जब, लोदी गार्डन में जब इस लड़के ने इरादतन झुरमुटों के पीछे जा कर बैठने की ख्वाहिश की, उस रात जब फ़ोन पर वो मांशाहरी चुटकुलों सुनाने की फरमाइश करने लगा और उस शाम जब उसने अगरवाल स्वीट्स पर आलू-टिक्की खाते हुए उसके साथ सोने की बात पर मन करने को लेकर उसे गली दी, तब ही जा कर इस लड़की को भजनपुरा वाले सलमान मियां के पीछे का शक्ति कूर नजर आया और तब से वो इससे भागती फिर रही है। जब से गोरखपुर में उसके शादी की बात चल रही थी, तब से ये भाग रही है।

आज फिर भजनपुरा की कॉल प्रतीक्षा पर थी । उसने आज फिर पी के उल्टियां की थी और अब अपने दोस्तों के साथ चारमिनार के धुंए को फांकता हुआ गुस्से, पागलपन और फ़िज़ूल की मर्दानगी से भरी गालियाँ बक रहा था।
आज फिर उसे लड़की को गालियाँ देने का मन था। आग को हवा देने के लिए वजीराबाद के कुरियर कंपनी में बतौर हेल्पर काम करने वाला उसका दोस्त, आजादपुर सब्जी मंडी में लौरी चलाने वाले तीन और दोस्त भजनपुरा आये थे । इन सब के बीच अच्छी बनती है क्यूंकि इन सब को दिलवाले का ''जीता था जिसके लिए'' वाला गाना सुनना बेहद पसंद है! वे नशे में धुत होने के बाद यही सुनते हैं। आज गलती से ''जीता हूँ'' वाला वर्शन बज गया। बजाने वाले को समेकित स्वर में ''भोंसड़ी के'' के तमगे से नवाज़ा गया। '' जीता था वाला वर्शन उन्हें पता नहीं क्यूँ बेहद पसंद था।

दारू पी कर उलटी करने के बाद लड़के का मूड अब फिर से रोमांटिक हो चला था । उसे उस लड़की को गाली देने और उससे गाली सुनने की आदत है।
''स्साली, कहाँ लगी पड़ी रहती है बे, किसको बर्बाद कर रही है चुड़ैल!'' वो बक रहा है।
'' कमीने, दुबारा फ़ोन मत करियो, साले गंवार, मुंह देखा है बे।'' लड़की भी चुप नहीं बैठेगी, वो दामिनी नहीं बनेगी। करियो -लडियो वाला लिंगो उसने दिल्ली से उधार लिया था!
लड़के के भीतर का मर्द दारू के साथ घुल कर अब खतरनाक हो चला था।
'' स्साली तेरे कमरे का रास्ता पता है मुझे, अभी उठा लूँगा।'' वो दहाड़ रहा था।
लड़की कहाँ पीछे रहने वाली थी। लिहाज़ा वो भी दहाड़ पड़ी - स्साले धमकी किसको देता है बे, एक बाप की औलाद है तो आ के दिखा।''

कह के उसने फ़ोन काट दिया। पास गूंजती पी सी आर वन की आवाज़ सुन उसे अचानक सब कुछ ठीक है जैसा लगा। पास में रखे बोतल से उसने दो घूँट पानी गटका।
कलकत्ता तब से प्रतीक्षा पर था।
''क्या हुआ शोना, कहाँ लगी थी। उसकी आवाज़ में घुल हुआ प्यार उसके भीतर के पुरुषवादी व्यंग्य को छुपा नहीं पा रहा था।
अरे, कहीं नहीं सब साले लोफर मवाली सब मेरे ही पल्ले पड़ते है।'' लड़की ने मसले पर इश्क की मिटटी डाल दी। अब वे फिर अपने हनीमून के गंतव्य स्थल के लिए लड़ रहे थे। मोबाइल बेचारा थक हुआ सा मुस्कुरा रहा था- उसे इन सब की आदत थी।

मेट्रो के खम्भों ने जम्हाई लेते हुए अभी काम्पना शुरू ही किया था, पी से आर की गाडी रिंग रोड से सटे ताजे खुले चाय की दूकान से जा कर सटी ही थी, इससे पहले की मस्जिद पे टेंगा भोंपू अपनी कौम की सेवा में लग पाता - पूर्वी दिल्ली के आसमान ने बिजलियों ने तारों की झालरों और लाल-पीले-नीले इंसानी दडबों के दरम्यान झांकते हुए एक खौफनाक नजारा देखा था। वो पांच थे जो दो भड-भड करती मोटरसाइकिल पर नशे में धुत भजनपुरा से इधर इस लड़की के घर के नीचे आये थे। कहते हैं की सुबह जब अखबार वाला उंघते हुए वहां से गुजरा था खुले दरवाजे से उसने दो लाशें पड़ी देखीं थीं। थोड़ी देर में वहां चीखते-चिल्लाते रिपोर्टरों की जमात जुट गयी थी, कहना मुश्किल था की वो लड़की की मौत से खफा थे या फिर इस तंग गली से जिसमें से हो कर उनके चैनल की गाड़ियों का घुस पान मुश्किल था। सत्य कथा और मनोहर कहानियों के युवा कहानीकार अपनी लपलपाती कलम के साथ वहां पहुँचने ही वाले थे। गली के मोड़ पर मट्ठी-चाय पीते कुछ सिपाही खड़े थे जो अपनी आज घर जा कर, आज अपनी बीवियों को अपनी लाडली पे '''नज़र'' रखने के लिए कहने वाले थे।
कमरे के भीतर लड़की की लाश रजाई पर गिरी थी उसके गले से अब खून रिस-रिस के काला पड़ने लगा था। लड़के ने जोर-आजमाइश की होगी लिहाज़ा वो भी मर गया था। गुलाबी दीवार से लटके रूपा वाले कैलेंडर के हनुमान जी पर खून के छींटे थे। और वहीँ कोने में अखबारों के गट्ठर के बीच दबी दामिनी की कहानी चुप चाप से सो रही थी। पास पड़ा मोबाइल कर्करदूमा ठाणे में किसी प्लास्टिक की थैली में पड़ा अब चैन की नींद सो रहा था - पिछले दो साल से वो सोया नहीं था। एक मोबाइल को छुट्टी मिल चुकी थी!
 

Friday, February 8, 2013

जड़ और सापेक्ष


वर्तमान के गलियारों में, अर्थ-भ्रम, वाद-विवाद, मर्त्य-अमर्त्य,
 क्षणिक -चिरंतन..सब कुछ सापेक्ष ही तो है..!
 जड़ता का सिधांत हुक्मरानों के लिए नहीं तो और क्या था?
 न्यूटन का जड़त्व, मध्यकालिक जडत्व नहीं तो और क्या था?

सापेक्षता तो समय की हालिया उपज है जो,
धू-धू कर बर्बाद होते नागासाकी और हिरोशिमा की चीखों के साथ ही चिल्लाती हुई जन्मी थी,
मध्यकालिक पापों के आग में झुलसती आधुनिकता को लोरी सुना के सुलाने के लिए!

शीत युद्ध के पदचापों के दरम्यान ही 'सापेक्ष' छलक के आता है,
क्यों? क्यूंकि हित सापेक्ष होते जा रहे थे,
क्यूंकि अमेरिकी 'कोका-कोला' का बक्सर में आगमन,
और रुसी सैनिकों का अफगानिस्तान में 'तथाकथित निस्वार्थ सैन्य सहयोग',
इन सब कुछ का आगमन भी तो सापेक्षता के रथ पर ही हुआ है.

धर्मं-अधर्म, भाव-भाषा,
इतिहास-भूगोल, भुत-भविष्य,
आशा-निराशा..सब 'सापेक्षता' का चोला ओढ़े सोये पड़े हैं मानो,
हर 'वाद' की सतह 'सापेक्षता' की फुहारों से गीली लगती है,
हम ही गलत है जो अपने फिसलने की तोहमत अपने पैरों पे मढ़ जाते हैं.

हमारे कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व, मूल्य, विकार,...सब मुक्त हैं आज जडत्व की बेड़ियों से..
जड़ता का फ्रेम तो कब का टूट के बिखर गया है...
'निरोध' के धक्कों ने, टूटते मिथकों की झंकार ने,
क्रांतियों वाले बुलडोजर की रफ़्तार ने, भटकती हुई मानवता की कुछ खोजती हुई आत्मा ने,
चूर कर रख दिया है 'जडत्व' के इस फ्रेम को!!

न्यूटन और आइन्स्टीन भी तो शासकों की ही देन हैं,
ठीक वैसे ही जैसे की उनका जडत्व और सापेक्षता,
रही बात शोषितों की.. उनकी तो सापेक्षता भी 'सापेक्ष' होती है,
ठीक वैसे ही जितना जड़ होता है उनका जडत्व!!

गोधरा की जलती लाशों में और सोमालिया की जिन्दा लाशों में,
इराक के दरकते खंडहरों में, अफगानी पीठों में पड़ी अमेरिकी मोर्टार की पिटाई में...
इन सब में 'सापेक्ष' कहाँ है,...
बिहारी मुसहरों की व्यथा में, कस्बाई सड़कों में अब तक चलते सामंती पदचिन्हों में,
लक्ष्मनपुर-बाथे और सेनारी में पड़ी मुआवजे का इंतज़ार करती लाशों में,
सापेक्ष कहाँ है इनमें....
या फिर इनका जड़ और सापेक्ष किसी पेड़ के नीचे खड़ा चिलम फूंक रहा है????

गरीबी रेखा

उबलती गर्मियों में, कंकपाती सर्दियों में,
बरसते बादलों से भरे गंदले-बजबजाते नालों के बीच,
मैं गरीब हूँ।
जानता हूँ, 'गरीबी' एक निहायती फ़िज़ूल सा लफ्ज़ है।
तुमने ही कहा था- 'गरीब हूँ मैं, गरीब ही रहूँगा,तुम्हारा हाथ न थामा, तो यूँ ही रहूँगा!'

मैं यूँ ही रहा, साल-दर-साल- फ़िज़ूल,हाशिये को थामे, दुबका हुआ।
मुझे लगा था की तुम भूल जाओगे, मुझको, मेरी गरीबी को।
पर उस दिन जब गाँव में चीनी की मिल लगी थी, तुम अपने मुहल्लों से निकल कर हाशिये तक आये थे।
बंधी हुई मुट्ठियों को लहराते हुए, तुमने दहाडा था -
'जागो, जागो - जाग सर्वहारा, जाग!.........'
तुमने हमारा नया नाम रखा था- 'सर्वहारा'!

गरीबी का नशा फिर भी नहीं टूटा, हाशियों की बुनियाद वैसी की वैसी रही - मजबूत।
साल गलते रहे, सर्दियाँ गर्मियों में बदलती गयीं - तुम अब और भी समझदार हो गए थे।
पता नहीं अब क्या क्या बोलने लग गए थे- की धर्मं अब निरपेक्ष हो गया है, प्रजातंत्र आ गया है।
तुम्हारी खेतों पर अब मोटरगाड़ियों का कारखाना बन रहा था- तुम्हारे बेटे जिनपे अपनी लुगाई घुमाते थे!
मुझे धर्मं का पता नहीं, पर मैं गरीब अब भी था, बिलकुल तुम्हारे धर्म की तरह - निरपेक्ष!

फिर एक दिन तुमने हमारे कुँए के पास चौपाल बुलाई।
तुमने एक काले ब्लैक बोर्ड पर उजली सी रेखा खींच दी - गरीबी रेखा!
हाशिये के सूरज से परेशान थे तुम, उसकी धुप बहुत तीखी लगती थी तुमको।
फिर भी, पसीना झाड़ते हुए तुमने कहा था- ' देख लो इस रेखा को, तुम इसके नीचे रहते हो, बहुत नीचे।
ये रेखा मुझको ढाई रूपये किलो वाला चावल देगी, सस्ता तेल देगी - तुमने कहा था!

जय हो तुम्हारी, जय हो गरीबी रेखा की!
उम्दा, बेहद उम्दा नुस्खा है ये!
शुक्रिया तुम्हारा, इस रेखा के लिए, मेरी गरीबी के लिए
कितनी सीधी है ये, कितनी चमकदार, कितनी लम्बी- ये गरीबी रेखा!
ओ मेरे शुभचिंतक- शत शत नमन तुम्हारा- तुमने हमें वरदान दिया है!
जय हो गरीबी रेखा!

दिल्ली यूनिवर्सिटी की 'dented -painted' लडकियां !

मैं रिक्शे वाले को 100 का नोट पकडाता हूँ,मुझे उसे 25 देने हैं। वो अपनी जेब खोद-खाद के एक पचास और एक दस का मुड़ा -तुड़ा नोट निकालता है। 'इतने ही हैं मेरे पास', कह के पास में खड़े धुप सकते ऑटो वाले से मांगने जाता है। वो किसी भद्दी सी गाली को और भी भद्दे लहजे में बोल, उसके भद्देपन का लुत्फ़ उठाने में लगे हैं। सामने से गवर्नमेंट स्कूल में पढने वाली लम्बी चोटियों में लाल रिबन लगाये दो लड़कियां निकल रही है। शायद उनमे से एक ने इन ऑटो वालों को सुना लिया है, वे फिर भी बेपरवाह सी दिखने की कोशिश करती आगे खिसक रही हैं। रिक्शे वाले को अपने खुल्ले की पड़ी है। मेरी आँखें लाल होती जा रही हैं,होठ खुश्क से लग रहे हैं,मुझे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा है। मुझे ऐसा क्यूँ लग रहा है कि मेरी कॉलोनी की गेट पे खड़ा वो दिल्ली पुलिस का कांस्टेबल मुझे घूर रहा है, मैं डरना शुरू करता हूँ।

मुझे जाड़े की अलसाई सुबह की धुप चुभ रही है, मेरे पैर कांप रहे हैं। मैं चुप चाप से डरता हूँ, चुप चाप से ठिठुरता हूँ। मुझे ये नहीं करना चाहिए था, सोचता हूँ। रिक्शा वाला ऑटो वाले से खुल्ले के लिए पूछता है - दोनों मना कर देते हैं। वो आगे बढ़ता है, मैं पीछे आता हूँ। मैं चलते हुए उन दोनों ऑटो वालों को बात करते सुनता हूँ - '40 मेरे पास थे, 10 तेरे पास, हो जाता!' छोटा वाला एक कुटिल मुस्कान ओढ़े, बड़े वाले से कह रहा है। 'अबे दिन भर में इनके जैसे दस आ जाते हैं मांगने, कंगले बिहारी सब!' ऑटो-रिक्शे की दुनिया में भी दिल्ली और पटना के बीच दूरी है- आज जाना। ऑटो वाले की आवाज़ में गुरूर क्यूँ था?
रिक्शे और ऑटो के बीच भी एक महीन सा वर्ग विभेद मिलेगा, होश में ऐसा कभी नहीं सोचा था। मार्क्सिस्ट जिस वर्ग विशेष पर 'सर्वहारा' का बोर्ड डालते आये हैं- वो इतना पाक साफ भी नहीं!

मैं आगे फिसलता हूँ, रिक्शा वाला अब थक चूका है। मुझसे कुछ खरीद लेने के लिए कहता है - मैं डरता हूँ। मेरी आँखें बदस्तूर लाल हो रही है, मुझे लगता है मैं बेवजह मुस्कुरा रहा हूँ। मैं कोशिश करता हूँ। मैं डेरी मिल्क सिल्क मांगता हूँ - वो खुल्ले और पैकेट पकडाते हैं। 'उसको अच्छा लगता है',मैं सोचता हूँ। मैं उन्हें 500 का नोट देता हूँ - वे मुझे 4 सौ के और एक पचास का नोट थमाते हैं। रिक्शा वाला मुझे अबकी गौर से देखता है- मैं नार्मल सा दिखने की कोशिश में और एब्नार्मल लगने लगा हूँ। वो अनुभवी है - ताड़ लिया है उसने।
'भैया, फिर तो बतवा उही हो गया।' वो मुझे बड़े गौर से देखता बोल रहा है।
मैं उसके रिक्शा को पकडे खड़ा ठिठुर रहा हूँ, वो मुझे सहारा देने की सोच रहा है।
मुझे अचानक उससे, सामने खड़े कांस्टेबल से, पास वाले फल वाले, सड़क पे चलते हर शख्स से डर लगने लगा हूँ।
मैं उसे पचास वाला नोट थमा कर निकल लेता हूँ - वो मुस्कुराते हुए हैरान सा पैडल मरने लगता है।
मैं दिमाग पे जोर डालते आगे बढ़ता हूँ, मुझे तंज़ है की मैंने 25 रुपये गवां दिए हैं। पर मैं लाचार हूँ।

मैं अपने गुफा जैसे फ्लैट का ताला खोलता। हूँ। ऊपर रहने वाली पंजाबी आंटी धुप में खड़ी हो कर बगल वाली संग स्वेटर बुन रही है।
'आज जल्दी आ गए?' वो मुझे देख के पूछती हैं।
चाभी न जाने क्यूँ ताले के भीतर कही फंस गयी है। अजीब है।
दोपहर के 12 बजे मैं अकेला अपने कमरे में काँप रहा हूँ। मेरी नसें चटक रही है- ऐसा मुझे लगता है।
मैं हदस गया हूँ भीतर तक - कही मर ना जाऊं।
मैं अपना फ़ोन निकल कर उसको कॉल करता हूँ। मुझे पता है की डेल्ही में अभी उसके अलावा कोई और नहीं आएगा मेरे लिए।
वो अभी अपने क्लास में है- मेरे कान में उसके सहेलियों की चिल्ल-पों सुनाई पड़ रही है।
जल्दी आ जाओ - अभी, प्लीज।' मैं बच्चे की तरह चिल्लाता हूँ। मुझे याद आ रहा है की कल तक मैं उसके सामने कितना 'माचो' बनता था।

वो बदहवास भागती हुई आती है - मैं ठण्ड से काँपता उसे कातर निगाहों से देख रहा हूँ।
वो दौड़ के किचन में जाती है - तेल गरम कर उसमे लहसून डाल कर, मेरे लिए निम्बू-पानी बना के लाती है।
वो मेरे तलवों पे तेल मलती हुई मुझे डांट भी रही है - 'करो यही सब तुम, क्या जरुरी है?'
मेरा पेट खाली है- मुझे उलटी आ रही है।
वो भाग कर बाथरूम से बाल्टी लाती है - मैं उलटी करता उसपे फ़िदा हो रहा हूँ। उसकी लटें बिखर चुकी हैं, वो नर्वस है, पर डरी हुई नहीं है।
मैं बिस्तर पर निढ़ाल लेट जाता हूँ - वो अब भी मेरे तलवे मल रही है। बिलकुल माँ की तरह।
मैं उसे देख रहा हूँ तो कुछ याद आ रहा है - कल शाम ही मैंने उससे बोल था की दिल्ली यूनिवर्सिटी की लडकियां सिर्फ पाउडर और लिपस्टिक पोत कर इंग्लिश में गिट पिट ही कर सकती हैं!
मैं चुप चाप पड़ा हूँ - बेहोशी भी मुझसे कह रही है की मैं गलत था।
मैं उसे उसका सिल्क थमाता हूँ!
अरे, फिर से ये ऑरेंज फ्लेवर ले आये तुम, कितनी बार कहा है मुझे पसंद नहीं।' वो बच्चों जैसा गुस्सा हो गयी है!
मैं इस दिल्ली यूनिवर्सिटी की लड़की को देख रहा हूँ, मुझे अभिजीत मुख़र्जी पे हंसी आ रही है। मुझे संस्कार के ठेकेदारों पे भी हंसी आ रही है। मैं सच में हसने लगता हूँ।
शुरू हो गया तुम्हारा नौटंकी सब - सो जाओ बाबु, ठीक लगेगा। डेल्ही यूनिवर्सिटी की वो लड़की मुझसे कह रही है।

लड़की, लड़का, डेट....और घंटे भर का मार्क्सवाद!

लड़के की ख़ुशी की कोई इन्तहा ना रही जब पांच दिनों की धांसू मान मन्नावल और EMOTIONAL अत्याचार के बाद लड़की उसके साथ डेट पर जाने के लिए राजी हुई! वैसे भी दिल्ली की उस सर्द सुबह में आकाश में चमचमाता सूरज दिल को रोमांटिक रोमांटिक करने के लिए काफी था. उफनते जज्बात और बहकते खयालातों के बीच मिलने की जगह तय हुई...पीवीआर साकेत..चमकती बदलती हुई दिल्ली में लड़के को अपने प्यार को थोडा URBAN URBAN टाइप का लुक देना था.. WAKE UP SID टाइप वाले रणबीर कपूर के माफिक CONVERSE के जूतों में सज के उसे फील गुड करना था.इसीलिए पीवीआर साकेत....!! लड़की बड़ी थी उससे... और MATURED भी...नयी नयी नौकरी लगी थी उसकी..!
पिछले पांच दिनों से काफी वर्क लोड था लड़की को..लड़का खफा खफा सा था उससे.. QUALITY टाइम जो नहीं मिला था उसको! ' नतीजतन पिछले पांच दिनों में उसे एहसास होने लगा था की जीवन सिर्फ प्यार व्यार तक ही सीमित नहीं है.. और दुनिया का सिस्टम उसकी सोच से ज्यादा COMPLICATED है..उसे एहसास होने लगा था की प्यार मुह्हबत भी एक टाइप का STATUS SYMBOL है..और भावनाओं में बहते हुए आदमी को देख दुनिया उसी तरह खिलखिलाती है जैसे कभी वह टॉम को जेरी के पीछे भागता देख मुसकता था।
अब कल रात की ही बात ले लो जब वह ऑटो में सर झुकाए हुए उस लड़की को याद करके अपने आंसू बहा रहा था,...ऑटो वाले भैया ने पैसे देते वक़्त उसे ऐसी नजरूं से देखा था मानों कह रहे हो..'' एक और इश्क में कुर्बान टाइप का लौंडा माँ बाप की गाढ़ी कमाई दिल्ली आ के फूंक रहा है, साले सब के सब दिल्ली आ के पढने में उस्ताद हो न या हों आशिकी में राज कपूर बन ही जाते हैं'!
लड़के ने पिछली पांच रातों में पांच पैक WILLS फूंक डाली थी, सिर्फ इसलिए की उसे लगता चुका था की वैश्वीकरण  के इस दौर में प्यार भी RECESSION की चपेट में आ चूका है..और उसका गुस्सा सिर्फ उसकी माशूका के प्रति नहीं था बल्कि उस बैंक के लिए भी था जहाँ वो काम करती थी, जिसने उसके QUALITY टाइम भरे बाजार में कतल किया था,सेल्स और सर्विस  की इस अंधी आपाधापी में उसके छायावादी प्यार का मार्केट के यथार्थवाद ने गला घोंट कर रख दिया था. बेचारा किसको समझाता, उस लड़की को जो हज़ार मील दूर से अपना घर बार छोड़ कर सिर्फ इसी जॉब को करने आई थी, जिसके घर में उसे इस MULTINATIONAL BANK में PLACED होने की ख़ुशी में चार दिन तक मिठाई बाटी गयी थी, किसको समझाता कि उसके व्यक्तिगत संबंधों का गला घोंटा गया था! जनता पागल ही समझती उसको अगर अपने रहस्यवाद का रहस्योदघाटन करता वो!
वो लड़का अपनी जान के इठला कर 'हमें तंग ना करो' कहने के अंदाज़ पे फिदा था.. आप सब ने अगर आशिकी की होगी(टाइम पास से एक लेवल ऊपर वाली) तो आप इस फ़िदा होने कि इंटेंसिटी को भली भांति पहचान सकते होंगे...गलत क्या है इसमें? हर कोई फ़िदा होता है..भले ही फ़िदा होने की वजह भारत के विभिन्न प्रान्तों के LITERACY लेवेल्स की तरह विविध हो सकती है, पर फ़िदा होने की प्रोबब्लिटी उतनी ही है जितनी इंडिया के किसी भी कोने में एक CORRUPT बाबुसाहब को पाने की है!! हाँ..तो लड़के के दिल में गुदगुदी सी हो उठती थी जब लड़की उससे इस ठेट बिहारी अंदाज़ में बतियाती थी..पर बेडा गर्क हो इस दिल्ली की YO DUDE वाली MULTINATIONAL संस्कृति का, कि JUNCTION पर उतारते के साथ ही यह 'हम' कब मैं में बदल गया लड़के को इसकी हवा तक नहीं लगी. फ़ोन पर बात ख़तम करते वक़्त 'रखते हैं' कब 'सी या, टेक केयर, बाय '' में बदल गया और कब लड़की का बेब्सीकरण हो गया, लड़के को पता भी ना चला..!!
हमारा लड़का कुछ विचारशील मिजाज़ का था, ग़ालिब, जैनेन्द्र,दुष्यंत, रेनू, दांते, फैज़, जैसे फरिश्तों से रु-ब-रु हो चूका था, और विचारशील होना बाज़ार का REQUIREMENT अब नहीं रह चूका है, इस बात को मान लेना हमारे INTELLECTUAL बंधुओं के लिए थोडा मुश्किल जरूर हो सकता है पर गुडगाँव कि बहुमंजिली इमारतों में जहाँ NSE, SENSEX, और DOW JONES जैसे अल्फाज़ बेतरह गुंजतें हैं, लंच ब्रेक में एक आध लोग चेतन भगत को याद कर लेते हैं यही बहुत है, रही बात ग़ालिब कि तो बेचारे गुलज़ार साहेब की बीडी के धुंए में ढकें से ग़ालिब को अब गुमनामी की जिंदगी बसर करनी पड़ती है!
बेचारी लड़की पक जाती थी जब वो लड़का उसे ग़ालिब क़ी लम्बी लम्बी शायरी SMS किया करता था..पूरी शायरी पढ़ के भी SUMMARY समझ नहीं पाती थी बेचारी, और बेचारी पढ़ती भी क्या, उर्दू भी ऐसी थी क़ी कहर ढा के ही छोडे!
इधर लड़का बेचारा अपनी ग़ालिब और दिनकर वाली दुनिया में अपनी उर्वशी का पान करने का दिवा स्वप्न देखता तो उधर लड़की SAVING ACCOUNTS के खतों में अपना सर खपाती!

इन पांच दिनों में लड़के को एहसास हो गया था क़ी वो परफेक्ट MISMATCH का शिकार हो चूका था,कि प्यार मुहब्बत भी ARCHIES, और VODAFONE के बदलते CALL रेट्स के इशारों पर नाचने वाली बसंती का नाम है!!
फूंकते फूंकते उसे लगा कि उसके दर्द का ज़िम्मेदार मनमोहन सिंह जी हैं, न वो होते और ना बाज़ार यों सुलगता और ना ही प्यार छायावादियों के पाले से भाग पूंजीवादियों के इशारों पर दौड़ता! प्रेम अब तक उसके लिए सामीप्य जनित भावनात्मक उपद्रव था, पर उन पांच दिनों ने उसे सिखाया था कि इस SHINING INDIA में प्यार MC DONALDS के बर्गर के WRAPPER में ढँक कर आता है! रात को २.३० बजे उसने इस नयी आर्थिक नीति कि जम कर माँ-बहिन की! रूम मेट बेचारा यही पूछते पूछते परेशां हो गया कि 'भाई बता तो गलिया किसको रहा है तू?' आधे घंटे भारत भर की माँ बहिन की गालियों के धारा प्रवाह संबोधन के बाद लड़का ने अपने रूम मेट से पूछा'भाई, तुझे इस मार्केट पर गुस्सा नहीं आता क्या, खुश कैसे है तू अपनी वाली के साथ, तब जबकि प्यार मुहब्बत के मायने ही बदल कर रख दिया है इन सालों ने, 'THESE BLOODY CAPITALISTS'! उसका रूम मेट पल भर के लिए उसे देखता ही रह गया, फिर डर गया बेचारा,'बोला भाई तू गुस्से में पागल क्यूँ होता है, सुबह तक भाभी मन जाएंगी,chill यार'!
लड़का हंसने लगा, आधे घंटे बाद पता नहीं कहाँ से सुधीर मिश्रा की 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी' उठा कर ले आया, फिर फूंकते फूंकते पूरी पिक्चर देख डाली, और सुबह हुई तो लड़का खुद को मार्क्सवादी टाइप का फील करने लगा! उसे लगने लगा की प्रेम एक निहायती संकुचित अवधारणा है जो कमज़ोर दिल वाले करते हैं, उसे लगा की संवेदनशील होना जैसे एक गुनाह है, और फलां फलां ऐसे कितने खतरनाक टाइप के ख्याल उसके दिमाग में आने लगे!
लडक के कॉलेज में ,मार्क्सिस्ट होना fashionable किस्म की hobby थी,..लम्बा कुरता पहनने का, लम्बे बाल-बढ़ी दाढ़ी रखने का, कैंटीन में cigarette जलाने का
लाइसेंस भर था मार्क्सवाद, उस लड़के के लिए! कभी कभी उसे मार्क्सवादी बनने का मन करता था,पर आज सुबह से दिल का रोब ही कुछ नया था .
लड़के ने सोचा इंडिया में डेमोक्रेसी सिर्फ नाम के लिए है, socialist state की बात करते है, कहाँ है उसका प्यार वाला socialism, जब मार्केट ने उसके प्रेम का ही अवमूल्यन कर दिया तो गरीबों का क्या हश्र किया होगा उसने..!
उसने अगले ही घंटे चे गुइविरा  वाली शर्ट खरीद ली, और अपना पूरा मन बना लिया, भांड में गया मेरा प्यार सोच लिया उसने, पर मार्केट इतनी आसानी से एक और कॉमरेड कहाँ पैदा होने देता है! कुछ ही मिनटों में उसके फ़ोन रहमान साहब के नए tune में बज उठा!
उस तरफ से मैडम g फ्री हो के उसे quality टाइम देने के मूड में थी आज! लड़के ने पल भर को सोचा की फ़ोन पर ही चीख के कह दूँ की मर गया तुम्हारा जानूं, आज से मैं एक कॉमरेड हूँ, पर फिर सोचा की यह कुछ ज्यादा rude हो जाएगा!
अगले ही पल उसने अपने ब्रेक up प्रकरण का स्थल भी निर्धारित कर लिया! पीवीआर साकेत! 'चलो आज एक आखिरी मूवी देखते देखते ही इस छुद्र सांसारिक प्रेम रूपी बंधन से निजात पा लूँगा, और उसे अपने जीवन के वृहेत्तर लक्ष्य से भी परिचित करा दूंगा!' लड़के ने शुद्ध हिंदी में सोचा!
बस फिर क्या था, मेट्रो की उफनती भीड़ के तले, पीसता-पिसाता, बगल वाले अंकल के सर के बालों को गिनता, लड़का जा पहुंचा अपनी मंजिल तक!
साउथ डेल्ही की दुनिया ही अलग है, वहां पैसा सड़कों पर गमकता है,और ऐश-ओ-आराम हर एक आते जाते मर्सिडीज़ की अगली सीट पर बैठे पप्पी के गुलाबी पट्टे में झलकता है।
लड़के को बड़ी कोफ़्त हुई पूंजीवाद के इस नंगे नाच को देख कर, मन किया की अभी चला जाये वहां से, पर सोचा 'एक आखिरी मुलाकात कर लेता हूँ, मानवता के लिए, उस व्यक्तित्व के लिए जिसका कभी मैं आसक्त था'!
लड़की ने उसे देखा तोह मुस्कुराने लगी, लड़का फिर भी चुप रहा!
'बहुत busy हो गयी हो ना तुम?'
हाँ, बहुत काम करते हैं साले!
लड़का चुप रहा.
कल मैंने नक्सलवाद पर सोचा है!
लड़की चुप रही!
levi's में 30% off हैं चलें?" लड़की ने औपचारिक आदेश दिया!
लड़का चुप चाप उसके पीछे घूमता रहा, उसने सोचा पिक्चर हॉल के अन्दर कह दूंगा!
पिक्चर शुरू हुई!
शीला नाचने भी लगी, लड़के ने मन ही मन फराह खान को हज़ारों गालियाँ डालीं..!
बाज़ार की कठपुतली!
अचानक लड़की ने अँधेरे में उसका हाथ थम लिया, आगे पीछे कि सीट पर कोई ना था...,!
दो तीन और जोड़े थे, बस फर्क सिर्फ इतना था कि उनमे से कोई, इस लड़के के अलावे कॉमरेड नहीं था.
कुछ ही देर में लड़की हमारे कॉमरेड साहेब की दाढ़ी से खेल रही थी, मार्क्सवाद पिघलता सा लगा लड़के को.
लड़की के हाथ अब लड़के कि छाती पर फिसल रहे थे, ठीक एवाहं जहाँ उस लड़के कि शर्ट पर CHE GUIVERRA सिगार पते हुए मुस्का रहे थे.
लड़के ने हाथ झटकने कि कोशिश भर कि, और सोचा कि कह दूँ कि यह चोंचले अब काम नहीं आने वाले, पर चुप रहा.
लड़की मुस्कुराती रही, मार्क्सवादी कॉमरेड शर्माता रहा,
लड़की इठलाती रही और लड़के को लगा जैसे, फराह, शीला, वो लड़की, मनमोहन, सुधीर मिश्र, CHE GUIVERAA , और सब ...सारा बाज़ार उसपर हंस रहा है, मनो कह रहा है, 'देखो इस एक दिन के कॉमरेड को'!
लड़का शर्माता रहा, और उसके भीतर का कॉमरेड लड़की के होठों कि गर्मी से पिघल ना जाने कब उस बंद हॉल के गलियारों से हो कर बह गया उसे पता भी नही चला.!
इंटरवल के बाद, हमारा इंटरवल के पहले वाला कॉमरेड, फिर से वही पुराना, अपनी जानूं का प्यारा 'शोना' बन कर सलमान को आदाब अर्ज़ करते हुए देख रहा था...और साउथ दिल्ली उसपर ठाठ से हंस रही थी!!!!!!!

जब लाशों ने बातें की!

साभार - tom moore  illustration .कॉम 
वैश्विक कोलाहल से दूर भूतल के किसी कोने में,
कुछ लाशें आस पास बैठी हुई हैं.
बुर्के में ढकी गोधरा वाली लाश, मटमैले लुंगी में लिपटी मेरठ वाली लाश से नजरें चुरा रही है.
भारतीय लाशें संस्कारी जो होती हैं..मर के भी औरत-मरद से पर्दा करना नहीं भूलती.
पास ही में कुछ रुसी लाशें है, स्टालिन की शिकार लाशें..जो अब भी समाजवाद के नगमे दुहरा रही हैं.
बगल वाली चट्टान पर कुछ फिलिस्तीनी लाशें हैं..जिन्हें ये सब कर्कश सुनाई दे रहा है.... इसमें थोडा कसूर इसरेली बमों का भी है..संगीत पर से इनका भरोसा उसने ही उठाया है.
कुछ लाशें फटी पुरानी धोतियों में भी हैं- यह भागलपुरी मुस्लिमों, बथानी टोला के मुसहरों और जहानाबाद के खेतिहर भूमिहारों की लाशें है.
लाश बन कर भी इनकी तलब नहीं गयी- लिहाज़ा यह चिलम फूंक रही है..फरक सिर्फ इतना है आज तलब के दरम्यान जातें नहीं, सिर्फ तलब है.
रुसी लाशें को इन्होने पहले सिर्फ अखबारों में देखा था कभी..फिलिस्तीनी लाशें को भी शायद.
आज आमने-सामने होने पे इन्हें उनपे हँसी आ रही है...वे बेहद मजाकिया हैं..
रूसियों का चीखना और फिलिस्तीनी लाशों का कान बंद करना- बेहद अजीब लगता है इन लाशों को.
इन बिहारी लाशों के चिलम का धुआं पास बैठी मुम्बईया लाश की आँखों को नहीं सुहा रहा- इस लाश को आग देने वक़्त बाल ठाकरे भी खड़ा था.
यह मुंबई धमाकों में निर्मित लाश - एक सी.ई.ओ. की लाश है-मल्टी-नेशनल लाश!
इसके ख्यालों में अब भी नीचे का शेयर बाजार है. यह लाश अब भी बिहारियों से घृणा करती है.

इन लाशों में कुछ सम्मानित लाशें भी हैं. सिगार फूंकते जिन्ना की, भूली सी नज़्म याद करते ग़ालिब की,
दरख्तों के पीछे छिपे डरे सहमे गाँधी की, इधर से उधर दौड़ते -कूदते लेनिन की.!
ग़ालिब चुप हैं. जिन्ना का सिगार गुडगुडा रहा है. जिन्ना ने ग़ालिब को कहीं देखा है....शायद हिंदुस्तान में!
लेनिन गाँधी को दरख्तों के दामन से बहार खींच लाते है!
सम्मानित लाशें ने आम सी इन लाशों को कभी भी नहीं देखा!
लाशें अब भी इन्हें पहचानती हैं.
गोधरा वाली आंटी ने जिन्ना की तस्वीर अपने अब्बू के कमरे में टँगी देखी थी.
मेरठ वाले हिन्दू को ग़ालिब के नगमों का बड़ा शौक था.
दरख्तों के दामन से लेनिन वाली लाश गाँधी को खींच कर इन सब के बीच लाती है.
गाँधी बच्चों की तरह रोये जा रहा है. लेनिन जिन्ना की सिगार मांगने की सोच रहा है.
भागलपुर, बथानी टोला और जहानाबाद वाली लाशें चिलम छोड़ गाँधी की और दौड़ लगाती हैं.
गाँधी रोते हुए भागता है ..डरता है क्यूंकि उनके सवालों का जवाब नहीं होगा उसके पास.
रुसी लाशें भी अपने लेनिन को काँधे पर उठाना चाहती है, पर लेनिन चुप चाप चिलम फूंक रहा है - जिन्ना ने उसे अपनी सिगार नहीं दी...उसने किसी को कुछ नहीं दिया है अपना..सिवाय पाकिस्तान के!
मल्टी-नेशनल लाश को गाँधी का दौड़ना और दौड़ के फिसलना बड़ा अच्छा लगता है...वो खूब जोर से हँसता है.
ग़ालिब उसे चुप करना चाहता तो है..पर उसे अंग्रेजी नहीं उर्दू आती है!!!!
बम्बईया लाश का हँसना न मेरठ वाले भैया को सुहाता है, न इन बिहारी लाशों को.
लाशों के बीच आज फिर शायद लाशें गिरने वाली है.
गाँधी पे ठहाका लगाने की हिम्मत कैसे हुई...लाशें वर्ग विभेद नहीं देखती.
कुछ लाशें फिर से हिन्दुस्तानी बन जाती है......गोधरा वाली आंटी भी मारने को उठती है...जिन्ना उन्हें इशारों में रोकता है.
वे ठिठकती है...फिर रुक ही जाती है. बहुत थक भी चुकी हैं वो.
बहरहाल, गाँधी पे हँसने वाली लाश फिर से मरने वाली है..लाशों के बीच फिर से दंगा छिड़ने लगता है.
रुसी लाशें भी नेहरु के रूस से मैत्रीपूर्ण संबंधों के सम्मान में, कूद पड़ती है दंगल में!
जिन्ना सिगार फूंकता हुआ, फिलिस्तीनी लाशों के कानों में कुछ फूंकता है.
वे उठ जाती है.
पल भर का उन्माद ---मरने-मरने की वही पुरानी कवायद शुरू हो गयी है.
लाशें अब फिर से लाशें हैं.
गांधी अपनी धोती संभालता फिर से रो रहा है.
लेनिन चिलम में कोयला धौंकने की असफल कोशिश कर रहा है.
ग़ालिब अब भी माज़रा समझने की कोशिश ही कर रहा है, जफ़र के ज़माने में भी लाशें ऐसे ही गिरी थी!
जिन्ना अब भी सिगार फूंके जा रहा है....ठीक वैसे ही जैसे उसने ४७ के दंगों के दरम्यान फूंका था.!!!